एक शाम बेटी के संग


देखो दरिया वहाँ, सुरज को कैसे शीतल कर रहा
के दिन भर जलता बेचारा, शाम को अब सम्भल रहा
के मानो जिवन के सफर में, थका हारा हूँ मैं
और दरिया सा, तु मेरे मन को, प्यार से युं भर रहा

के दूर जहाँ, झुठी-मुठी, आसमान धरती चूमे
सुनहरी किरणें अब खो रही, अन्धेरे में धीमे धीमे
और यहाँ बैठे हम तुम, न जाने कीन बातों में खोये
के मानो जैसे सपने मेरे, तेरे मासूम नींदों मे सोये

के दूर वो, लहराता सागर, अब धिरे धिरे उफन रहा
उसकी विशाल शान्त स्वभाब, रात को, सूली चढ रहा
और मनमें मेरे कितने सवाल, लहरों से पनप रहे
पर तेरे करीब होने का अहशास, सब को, युं हल रहे

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